किन्नरों (transgender) का रहन-सहन अभी भी रहस्यों के घेरे में हैं. धीरे-धीरे ही इनकी बातें सामने आ रही हैं. जैसे बहुत से आम लोगों की तरह किन्नर भी कुलदेवी को मानते हैं. इनका नाम बहुचरा माता है, जिनका मंदिर गुजरात के मेहसाणा जिले में है. जानिए, क्यों किन्नर इनकी पूजा करते हैं|
मेहसाणा जिले के बेचराजी कस्बे में किन्नरों का ख्यात मंदिर है. यहां बहुचरा माता प्रतिष्ठापित हैं. किन्नर इन्हें अर्धनारीश्वर का रूप मानकर पूजते हैं. इस मंदिर में बहुत से मुर्गे रोज घूमते रहते हैं इसलिए इन देवी को मुर्गे वाली देवी भी कहा जाता है. यहां लगभग रोज देशभर से किन्नर देवी पूजा के लिए आते हैं, साथ ही स्थानीय लोगों की भी बहुचरा माता में काफी आस्था है. कहते हैं कि बहुत से राक्षसों का एकसाथ संहार करने के कारण इनका नाम 'बहुचरा' पड़ा.
NIRVAIR KAUR in Bachraji village at Bhauchara Temple with Film Director Daya (@ Mehsana)
ये है कहानी
मंदिर में मुर्गे क्यों घूमते हैं, इसके पीछे भी स्थानीय बड़े-बूढ़े एक कहानी सुनाते हैं, जो वे अपने पुरखों से सुनते आए हैं. बताया जाता है कि अलाउद्दीन खिलजी जब पाटण (मध्यकाल में गुजरात की राजधानी) जीतकर यहां पहुंचा तो सबसे पहले उसकी नजर इस मंदिर के वैभव पर पड़ी. काफी समृद्ध मंदिर को देखकर खिलजी के मन में उसे लूटने की इच्छा जागी. वो अपने सैनिकों को लेकर मंदिर पर चढ़ाई करने ही वाला था कि सैनिकों को पूरे प्रांगण में बहुत से मुर्गे नजर आए. कई दिनों की लड़ाई से थके और भूखे सैनिकों ने उन्हें पकाकर खा लिया और सो गए. लेकिन एक मुर्गा बचा रह गया था. सुबह उसने बांग देनी शुरू की तो उसके साथ-साथ सैनिकों के पेट से भी बांग की आवाजें आने लगीं. एकाएक ही बहुत से सैनिक बिना किसी कारण मरने लगे. अपने सैनिकों की ये हालत देखकर खिलजी बाकी सेना के साथ वहां से निकल भागा. इस तरह से मंदिर सुरक्षित रह गया. तब से इसे मुर्गे वाली माता का मंदिर भी कहते हैं|
किसलिए हैं किन्नरों की देवी
इसके पीछे कई सारी कहानियां सुनाई जाती हैं. जैसे एक प्रचलित कहानी, जो किन्नर समुदाय के लोग अपने यहां शामिल हुए नए सदस्यों को सुनाते हैं, उसके अनुसार गुजरात के राजा की कोई संतान नहीं थी. बहुचरा माता की पूजा के बाद राजा के पुत्र तो हुआ लेकिन वो नपुंसक था. पुत्र के खूब पूजा-पाठ के बाद उसे पूरा शरीर मिल गया लेकिन तब तक वो देवी का उपासक हो चुका था. उसने राजपाठ छोड़ दिया और बहुचरा माता का भक्त हो गया. इसके बाद से किन्नर समुदाय के लोग इन्हीं देवी को मानने लगे. ऐसी मान्यता है कि इनकी पूजा से अगले जन्म में किन्नर पूरे शरीर के साथ जन्म लेंगे. किन्नरों के अलावा यहां निःसंतान लोग भी मनौती मांगने आते हैं. मन्नत पूरी होने के बाद वे शिशु के बाल यहां छोड़ जाते हैं. मंदिर में मुर्गों के दान का भी प्रचलन है|
पहली बार कुंभ में लिया हिस्सा
किन्नर कोई भी शुभ काम मुर्गे वाली माता की पूजा-अर्चना के बगैर नहीं करते. मान्यता है कि उनके आशीर्वाद से ही किन्ररों की सारी दुआएं लगती हैं, सभी काम बनते हैं. यही वजह है कि अपने हर अनुष्ठान से पहले वे बहुचरा माता की पूजा जरूर करते हैं. किन्नरों की इनपर इतनी आस्था है कि गुजरात के बाद देहरादून के चुक्खूवाला में भी बहुचरा माता का मंदिर बन चुका है. अर्धनारीश्वर के उपासक किन्नरों ने पिछले ही साल कुंभ मेले में पहली बार अखाड़े की तरह हिस्सा लिया. इससे पहले यहां पर 13 अखाड़े शाही स्नान को जाते थे लेकिन पहली बार किन्नर अखाड़े को भी इसमें शामिल किया गया. इसके तहत किन्नरों ने पहले बहुचरा माता को स्नान करवाया, फिर खुद शाही स्नान किया|
अलग हैं दक्षिण की मान्यताएं
दक्षिण भारत के किन्नरों की आस्था और पूजा-पाठ के तरीके उत्तर भारतीय किन्नरों से काफी अलग हैं. जैसे उत्तरी हिस्से में बहुचरा माता को माना जाता है, वैसे ही दक्षिण में अरावन भगवान की मान्यता है. हर साल अप्रैल-मई में कुवागम गांव में अरावनी मंदिर में 18 दिनों का पर्व होता है, जिसमें हजारों की संख्या में किन्नर इकट्ठा होते हैं. दक्षिण भारत के किन्नरों में शादी की भी प्रथा है, जिसके पीछे एक पौराणिक कथा है. ऐसा माना जाता है कि अरावन भगवान महाभारत काल में अर्जुन और नागा राजकुमारी उलूपी के पुत्र थे. महाभारत की कहानी के अनुसार युद्ध के वक्त देवी काली को खुश करना होता है. अरावन उन्हें खुश करने के लिए अपनी बलि देने को तैयार हो जाते हैं, लेकिन उनकी शर्त होती है कि वह अविवाहित नहीं मरना चाहते. शादी के अगले ही पल बेटी के विधवा हो जाने के डर से कोई भी राजा उससे अपनी बेटी की शादी को तैयार नहीं होता. ऐसे में श्रीकृष्ण ही मोहिनी रूप धरकर अरावन से शादी कर लेते हैं. अगली सुबह अरावन की मृत्यु के बाद श्रीकृष्ण ने विधवा की तरह विलाप किया था|
एक ही बार रोते हैं किन्नर
कृष्ण को मानने वाले किन्नर इसी कथा के आधार पर एक दिन के लिए अरावन से शादी करते हैं. किन्नर दुल्हन की तरह ही श्रृंगार करते हैं. मंदिर के पुजारी इन्हें मंगलसूत्र पहनाते हैं. शादी से पहले की तैयारियों का उत्सव 16 दिनों तक चलता है. 17वें रोज शादी होती है और अगले दिन वे अरावन को मृत मानकर विधवा हो जाते हैं. किन्नर अपना शृ्ंगार उतार देते हैं और भगवान की मूर्ति तोड़ दी जाती है. यही अकेला वक्त होता है, जिसमें दुल्हन किन्नर अपने पूरे समुदाय के सामने बिलखकर रोती है वरना खुद को मंगलामुखी मानने वाले किन्नर किसी मौके पर रोते नहीं हैं, बल्कि खुद को खुशियों का वाहक मानते हैं|
Aticle Source: News 18 | Picture: Nirvair Kaur |
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